समंदर के पानी से नमक को अलग कर एक विकल्प है. इस प्रक्रिया को
डिसालिनेशन यानी विलवणीकरण कहा जाता है. दुनिया भर में यह तरीक़ा लोकप्रिय
हो रहा है. विश्व बैंक के अनुसार मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ़्रीका के देशों
में विलवणनीकरण की प्रक्रिया की क्षमता पूरी दुनिया की आधी है. दुनिया भर
के 150 देशों में समंदर के पानी से नमक अलग कर इस्तेमाल किया जा रहा है.
इंटरनेशनल
डिसालिनेशन एसोसिएशन (आईडीए) का अनुमान है कि दुनिया भर में 30 करोड़ लोग
पानी की रोज़ की ज़रूरते विलवणीकरण से पूरी कर रहे हैं. हालांकि विलवणीकरण की प्रक्रिया भी कम जटिल नहीं है. ऊर्जा की निर्भरता भी इन इलाक़ों में
डिसालिनेशन पावर प्लांट पर है. इससे कार्बन का उत्सर्जन होता है. इस
प्रक्रिया में जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल होता है. वैज्ञानिकों का कहना है
कि इस प्रक्रिया से समुद्री पारिस्थितिकी को नुक़सान पहुंच रहा है.
आईडीए की महासचिव शैनोन मैकार्थी का कहना है कि खाड़ी के देशों में विलणीकरण की
प्रक्रिया से पानी घर-घर पहुंचाया जा रहा है. मैकार्थी के अनुसार कुछ देशों
में पानी की निर्भरता विलवणीकरण पर 90 फ़ीसदी तक पहुंच गई है.
मैकार्थी कहती हैं, ''इन देशों में विलवणीकरण के अलावा कोई विकल्प नहीं
है.'' इस तरह के अपारंपरिक पानी में काफ़ी खर्च आता है और ग़रीब देशों के
लिए यह आसान प्रक्रिया नहीं है. ऐसे में यमन, लीबिया और वेस्ट बैंक में अब लोग ग्राउंड वाटर पर ही निर्भर हैं.''
तलमीज़ अहमद का कहना है कि सऊदी भले अमीर देश है, लेकिन वो खाद्य और पानी के मामले में पूरी तरह से असुरक्षित है.
वो
कहते हैं, ''खाने-पीने का सारा सामान सऊदी विदेशों से ख़रीदता है. वहां खजूर फल को छोड़ किसी भी अनाज का उत्पादन नहीं होता है. ग्राउंड वाटर के
भरोसे तो सऊदी चल नहीं सकता क्योंकि वो बचा ही नहीं है. पिछले 50 सालों से
सऊदी समंदर के पानी से नमक अलग कर इस्तेमाल कर रहा है. यहां हर साल
डिसालिनेशन प्लांट लगाए जाते हैं और अपग्रेड किए जाते हैं. ये बिल्कुल सच
है कि इस प्रक्रिया में बहुत खर्च आता है और यह ग़रीब मुल्कों की वश की बात नहीं है. यमन ऐसा करने में सक्षम नहीं है. मुझे नहीं पता कि लंबे समय में
डिसालिनेशन कितना सुलभ होगा या किस तरह की जटिलता आएगी.''
समाचार एजेंसी रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार सऊदी अरब का शुमार दुनिया के उन देशों में है जो अपने नागरिकों को पानी पर सब्सिडी सबसे
ज़्यादा देता है. 2015 में सऊदी ने उद्योग धंधों में पानी के इस्तेमाल पर
प्रति क्यूबिक चार रियाल से बढ़ाकर 9 रियाल टैक्स कर दिया था. रिपोर्ट के मुताबिक़ सरकार घरों में इस्तेमाल के लिए पानी पर भारी सब्सिडी देती है
इसलिए पानी महंगा नहीं मिलता.
तलमीज़ अहमद कहते हैं कि सऊदी ने अपनी
ज़मीन पर गेहूं उगाने की कोशिश की थी, लेकिन बहुत महंगा पड़ा था. वो कहते
हैं, ''सऊदी ने गेहूं फील्ड बनाया. इसके लिए सिंचाई में इतना पानी लगने लगा
कि ज़मीन पर नमक फैल गया. कुछ ही सालों में यह ज़मीन पूरी तरह से बंजर हो
गई. वो पूरा इलाक़ा ही ज़हरीला हो गया. पूरे इलाक़े को घेर कर रखा गया है
ताकि कोई वहां पहुंच नहीं सके. सब्ज़ी उगाई जाती है लेकिन बहुत ही
प्रोटेक्टेड होती है. खजूर यहां का कॉमन पेड़ और फल है. खजूर एक ऐसा फल है
जिसमें सब कुछ होता है. हालांकि ज़्यादा खाने से शुगर बढ़ने का ख़तरा रहता
है. यहां पेड़ काटना बहुत बड़ा जुर्म है.''
सऊदी अरब ने जब आधुनिक
तौर-तरीक़ों से खेती करना शुरू किया तो उसका भूजल 500 क्यूबिक किलोमीटर
नीचे चला गया. नेशनल जियोग्राफी के अनुसार इतने पानी में अमरीका की एरी झील
भर जाती.
इस रिपोर्ट के अनुसार खेती के लिए हर साल 21 क्यूबिक
किलोमीटर पानी हर साल निकाला गया. निकाले गए पानी की भारपाई नहीं हो पाई. स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ़्रीकन स्टडीज इन लंदन ने सऊदी में पानी निकालने की
दर एक रिपोर्ट तैयार की है.
इस रिपोर्ट में बताया गया है कि सऊदी ने चार से पांच चौथाई पानी इस्तेमाल कर लिया है. नासा की एक रिपोर्ट का कहना
है कि सऊदी अरब ने 2002 से 2016 के बीच 6.1 गिगाटन भूमिगत पानी हर साल खोया
है.
जलवायु परिर्तन के कारण अरब के देशों पर सबसे बुरा प्रभाव पड़ रहा है. पूरे मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ़्रीका पर जल विहीन होने का संकट गहरा
रहा है. संभव है कि इंसान पेट्रोल के बिना ज़िंदा रह ले लेकिन पानी के
बिना तो मनुष्य अपना अस्तित्व भी नहीं बचा पाएगा. और सऊदी अरब इस बात को बख़ूबी समझता है.
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