Wednesday, May 22, 2019

अदालतों की छुट्टियों को लेकर कई बार चर्चा की गई

लेकिन साल 2018 में इन छुट्टियों को लेकर एक मुकदमा दर्ज किया गया था.
बीजेपी प्रवक्ता और सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की ओर से दाखिल मुकदमे में मांग की गई उच्च अदालतों को साल के 225 दिन चलने चाहिए और प्रतिदिन न्यूनतम काम के घंटे छह होने चाहिए. इसके साथ ही कोर्ट को कानून मंत्रालय को ये नियम बनाने के लिए आदेश देना चाहिए.
उपाध्याय अपने मुकदमे में मांग करते हैं, "तत्काल न्याय पाना हर व्यक्ति का मूल अधिकार है. संविधान ने ये अधिकार हर भारतीय नागरिक को दिया है. कोर्ट की छुट्टियां न्याय दिए जाने में देरी करती हैं और आम आदमी के लिए इससे दिक्कतें पैदा होती हैं. इस वजह से अदालतों की छुट्टियां कम होनी चाहिए और जजों के काम करने के घंटे बढ़ाए जाने चाहिए."
भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश टी. एस. ठाकुर ने भी साल 2017 में एक सुझाव दिया था कि गर्मियों की छुट्टियों को कुछ मामलों की सुनवाई के लिए प्रयोग किया जाना चाहिए.
अपने सुझाव में उन्होंने कहा था, "भारत में लंबित मामले होना कोई नई बात नहीं है. लेकिन अब ये कुछ ज़्यादा ही बढ़ गए हैं. एक तरह न्यायपालिका लंबित मामलों की वजह से काफ़ी तनाव में है तो वहीं न्याय देने में बेहद देरी के चलते आम आदमी ने न्यायपालिका में विश्वास खो दिया है."
"कोई भी न्याय में देरी होने के लिए ज़िम्मेदार कारणों पर बात नहीं करना चाहता है. ऐसे में त्वरित न्याय का संवैधानिक आश्वासन उपहास का विषय बन गया है."
लंबित मामलों के त्वरित न्याय को लेकर लगभग हर पक्ष ये मानते है कि जजों की संख्या को बढ़ाकर ही इस समस्या का समाधान निकल सकता है.
पूर्व जस्टिस पारानथमन सुझाव देते हैं, "भारत में प्रति हज़ार व्यक्ति पर उपलब्ध जज़ों की संख्या दूसरे देशों के मुक़ाबले काफ़ी कम है. ऐसे में लंबित मामलों की समस्या कभी सुलझती नहीं है. छुट्टियों पर दोष देने की जगह न्यायपालिका को ज़्यादा संसाधन उपलब्ध कराया जाना ही इस समस्या का समाधान है."
17वीं लोकसभा के चुनाव के लिए सातों चरणों का मतदान पूरा हो चुका है, चैनलों और सर्वे एजेंसियों के एग्ज़िट पोल आ चुके हैं और अब 23 मई को आने वाले नतीजों का इंतज़ार है.
जैसे ही आख़िरी चरण के मतदान के लिए प्रचार थमा था, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तराखंड के केदारनाथ जाकर बुद्ध पूर्णिमा पर पूजा अर्चना की थी.
यहां उन्होंने क़रीब 17 घंटा बिताए और गुफ़ा में ध्यान भी लगाया. इससे पहले उन्होंने केदारनाथ में 2013 में आई आपदा के बाद किए जा रहे पुनर्निर्माण कार्यों का जायज़ा भी लिया था.
जिस समय मोदी यह सब कर रहे थे, उनकी तस्वीरें और वीडियो टीवी चैनलों, वेबसाइटों और सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुंच रहे थे.
विपक्षी दलों ने इसे लेकर सवाल उठाते हुए आरोप लगाया कि यह आदर्श आचार संहिता के तहत आख़िरी चरण के लिए चुनाव प्रचार थम जाने के बाद अप्रत्यक्ष ढंग से किया जा रहा चुनाव प्रचार है.
तृणमूल कांग्रेस के नेता डेरेक ओ ब्रायन ने पत्र लिखकर चुनाव आयोग से इस बारे में शिकायत भी की थी और इस यात्रा पर रोक लगाने की मांग की थी.
इस पूरे घटनाक्रम से कुछ सवाल उठ खड़े हुए हैं जिन पर चर्चा हो रही है. जैसे, मोदी की केदारनाथ यात्रा का हासिल क्या था? क्या यह एक तरह से चुनाव प्रचार था? क्या चुनाव के दौरान प्रचार थम जाने पर बड़े नेताओं का सार्वजनिक कार्यक्रमों में या निजी धार्मिक यात्राओं पर जाना ग़लत है?
क्या यह प्रचार था?
नरेंद्र मोदी की केदारनाथ यात्रा के लिए एक टर्म इस्तेमाल किया जा रहा है- सरोगेट कैंपेनिंग. सरोगेट कैंपेनिंग यानी अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव प्रचार करना.
चूंकि मतदान से 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार थम जाता है, ऐसे में कोई भी नेता या पार्टी उन सीटों पर प्रचार नहीं कर सकते जहां मतदान होना है.
ऐसे में अगर कोई खुलकर प्रचार किए बिना अप्रत्यक्ष ढंग से कुछ ऐसा करता है जिससे मतदाताओं को प्रभावित किया जा सकता है, तो उसे सरोगेट कैंपेनिंग कहा जाता है.