नियम-कायदों से जुड़े बुनियादी सवाल उठाना भी अगर अब साहसिक काम बनता जा रहा हो, या उसे समाज ने ग़ैर-ज़रूरी मान लिया हो तो लोकतंत्र के अस्तित्व
की चिंता करनी चाहिए, न जाने आगे कितने मौक़े मिलें, या न मिलें.
कुछ
बुनियादी सवाल जिनके जवाब महामहिम भगत सिंह कोश्यारी से माँगे जाने चाहिए, वे खुद भी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रह चुके हैं, अनुभवी राजनेता रहे हैं.
उनके सामने दुविधा रही होगी, ऐसा लगता है कि उन्होंने नियमों का पालन करने की जगह, आदेशों का पालन करना बेहतर समझा.
वैसे
कोश्यारी कोई पहले राज्यपाल नहीं हैं जिन्होंने नियमों की जगह आदेश का
पालन किया हो, बीसियों ऐसे उदाहरण हैं जब नियम-कानूनों को धता बताते हुए, राज्यपाल ने केंद्र सरकार के आदेशपाल की भूमिका निभाई. कांग्रेस के ज़माने
में रोमेश भंडारी और बूटा सिंह यही करते पाए गए थे.
1. पारदर्शिता- राष्ट्रपति शासन हटाने की सिफ़ारि
3.प्रावधान- राज्यपाल ने एनसीपी की बैठक करके पार्टी
की तरफ़ से आधिकारिक चिट्ठी लाने की मांग अजित पवार से क्यों नहीं की? इतनी
क्या हड़बड़ी थी कि एनसीपी की बैठक और उसकी आधिकारिक चिट्ठी का इंतज़ार तक
नहीं किया गया?
4.नैतिकता- गुपचुप शपथ दिलाकर 30
नवंबर तक यानी एक हफ़्ते का समय सत्ताधारी पक्ष को दिया गया है, क्या
राज्यापाल नहीं जानते कि इस हफ़्ते में क्या कुछ होगा, क्या हथकंडे अपनाए
जाएंगे और यह सब लोकतंत्र के लिए कितना अशुभ होगा?
उनके अपने ही
राज्य उत्तराखंड की तीन साल पुरानी घटना उन्हें ज़रूर याद होगी जब अदालती
लड़ाई के बाद कांग्रेस के हरीश रावत ने मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी दोबारा हासिल की थी. यह मामला भी अदालती लड़ाई से तय होगा, ऐसा ही दिख रहा है.
5. औचित्य-
राष्ट्रपति शासन हटाने की सिफ़ारिश और गुपचुप शपथ ग्रहण के बीच जितना समय
लगा उसमें या तो प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया. अगर किया गया तो न केवल राज्यपाल बल्कि देश का पूरा शासन तंत्र जिसमें राष्ट्रपति,
प्रधानमंत्री, कैबिनेट, शीर्ष सरकारी अधिकारी सब रात भर जगकर काम करते रहे?
आख़िर क्यों? इसका जवाब सबसे मांगा जाना चाहिए. इतनी तत्परता क्या आपको
पुलवामा के हमले के बाद दिखी थी?
सर्जिकल स्ट्राइक देश के दुश्मनों के ख़िलाफ़ किया जाता है, अब यह जायज़ राजनीतिक विपक्ष के ऊपर भी होने लगा है.
ये
वाजिब सवाल पूछे जाने चाहिए, इनके जवाब मिलने चाहिए. आप किसी भी पार्टी के
समर्थक हो सकते हैं लेकिन इन सवालों के पूछने या न पूछने से तय होगा कि आप
लोकतंत्र के समर्थक हैं या नहीं.
विजय और न्याय में अंतर कर पाने भर विवेक अगर नागरिकों में होगा तो ही लोकतंत्र का भविष्य है.
श उन्होंने कब की, किस आधार पर की? अगर
इतना बड़ा फ़ैसला किसी भी लोकतंत्र में किया जाता है तो जनता को उसके बारे
में बताया जाता है, चोरी-छिपे, रात के अंधेरे में ऐसे फ़ैसले नहीं किए
जाते.
2. विधान-संविधान- राष्ट्रपति शासन लगाने और हटाने की एक तयशुदा संविधान-सम्मत प्रक्रिया है. राज्यपाल अपनी सिफ़ारिश
राष्ट्रपति को भेजते हैं, राष्ट्रपति के यहां से वह प्रधानमंत्री को भेजी
जाती है, प्रधानमंत्री कैबिनेट की बैठक बुलाते हैं, फिर राष्ट्रपति को कैबिनेट की राय बताई जाती है. राष्ट्रपति इसके बाद राष्ट्रपति शासन को
लगाने या हटाने के आदेश पर अपनी मुहर लगाते हैं. ये सब कब हुआ? कहाँ हुआ?
इस
सवाल के जवाब में केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा है "यह 'एलोकेशन
ऑफ़ बिज़नेस रूल्स' के रूल नंबर 12 के तहत लिया गया फ़ैसला है और वैधानिक नज़रिए से बिल्कुल दुरुस्त है."
रूल नंबर 12 कहता है कि
प्रधानमंत्री को अधिकार है कि वे एक्स्ट्रीम अर्जेंसी (अत्यावश्यक) और
अनफ़ोरसीन कंटिजेंसी (ऐसी संकट की अवस्था जिसकी कल्पना न की जा सके) में अपने-आप निर्णय ले सकते हैं. क्या ये ऐसी स्थिति थी?
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